यीशु का मार्ग   windows 98, ME, 2000, XP             English

यीशु का मार्ग

यीशु आध्यात्मिकता और पृथ्वी

यीशु के मार्ग, मानव चेतना और मानवता व पृथ्वी पर परिवर्तन में उनका योगदान : एक स्वतंत्र सूचना - पृष्ठ, कई अनुसंधानों और अनुभवों से प्राप्त नए दृष्टिकोण ; व्यावहारिक विकास के लिए मार्गदर्शन के साथ .

 

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यह एक विशेष संक्षिप्त ह्रिंदी संस्करण (उद्धरण ) है

धर्म मनुष्य का ईश्वर के साथ पुर्नसम्बंध के रूप में - यीशु के मार्ग पर

यीशु और हिंदूधर्म

यीशु और बौद्धधर्म

जानकारी: ज़ोरोस्टीज़्म (पारसी -धर्म)

गास्पेल और रेवेलेशन और अन्य विषयों पर विस्तृत आलेख विभिन्न भाषाओं में पहले ही उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, अंग्रेजी वेबसाइट में, जो बहुधा संशोधित होती है।

 

यह मुख्यपृष्ठ है  http:www.ways-of-christ.com/hi

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दूसरी भाषाओं के मुख्य आलेखों में निम्न अध्याय हैं : खण्ड 1 में: इस आलेख का उद्धेश्य और उपयोग, विधिपूर्वक संकेत व ध्यान को शामिल कर; "आरम्भ में शब्द था (ग्रीकरू लोगोस) ...और शब्द मारस बन गया", नजारेथ का यीशु: उनका जन्म, साथ ही एक अतिरिेक्त पृष्ठ यीशु के पुर्नजन्म के बारे में, क्या यीशु के आरम्भिक सालों में कुछ महत्वपूर्ण है?; एक हाशिया-नोट "दो यीशु – लड़कों" के झगडे के बारे में, जान बैपटिस्ट के जोर्डन में बपतिसा के बारे में, साथ में एक अतिरिेक्त पृष्ठ टिप्पणियों के साथ आज के बैपटिज्म के बारे में, रेगिस्तान में चुप्पी, टेम्टेशन, काना में शादी, (यौनधर्म, संवेदना, भावना और प्रेम के बारे में दृष्टिकोण): दि "होली इगरनेस" (और भावनाओं के बारे में दृष्टिकोण): पर्वत पर प्रवचन और मष्तिष्क पर दृष्टिकोण): यीशु का टेबर पर्वत पर ज्योति रूपांतरण; "चमत्कारी कार्यों" के सवाल लैजारस को मौत से जगाना: "भेड़" यीशु "पैर का धोना" बैथनी की मेरी द्वारा यीशु का तेल - ईसाई आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण बिंद, अंतिम भोजन, गिरफ्तारी और कोडे पडना ; काँटो का ताज और अंतिम प्रवचन, शूली पर चढ़ाना और दफनाया जाना (ईसाईयत रहस्यवाद के दृष्टिकोण के साथ): खाली कब्र का सवाल, "नर्क में गिरना" और "स्वर्ग के लिए उठना" मौत से जागना; यीशु का "उत्थान"; व्हिटसन घटना (पेंटेकास्ट); यीशु की एक तस्वीर का संदर्भ; खण्ड; 2 में: जान का भविष्यकथन, भविष्यकथन से कैसे बर्तान करें, जान के भविष्यकथन का सार : सात चर्च; आज के चर्च पर एक अतिरिक्त पृष्ठ, उनके मतभेद और उनकी सहमति के रास्ते, "सात सील"; "सात तुरहियाँ" "सात तूफान" और दो ईश्वरदूत, ड्रैगन और औरत, समुद्र का "सात सिरों वाला जानवर"; "पृथ्वी का जानवर"; "कोप के सात कटोरे और "वेबीलोन" का खात्मा और यीशु का दूसरी बार आना, "शांति के 1000 साल"; नया स्वर्ग, नई पृथ्वी और "नया जेरूशलम: अंतिम अध्याय: ईसाई मान्यता; टेबल; ईसाई मान्यता; दुनिया में, पर दुनिया से नहीं, जर्मन में छपे हुए संस्करण के प्रदर्शन क्वालिटी का संदर्भ, और अधिकार, ईमेल फार्म. 3. दूसरे विषय: प्रार्थना, नीतिगत मूल्यों का मूलतत्व, आधुनिक यीशु सिद्धांतो के सुधार; यीशु, मानव पोषण और पशुओं की रक्षा; विज्ञान और ईश्वर पर विश्वास; .यीशु और स्वास्थ्य लाभ - आज भी; आशीर्वाद; र अर्थशास्त्र और समाज के प्रश्नों पर ईसाईयत दृष्टिकोण, समाज और राजनीति पर ईसाईयत दृष्टिकोण, धर्म और दर्शन; हाबरमास के प्रवचन पर टिप्पणी; पर्यावरण; अजन्मा जीवन; ये पृष्ठ और ईसाई आध्यात्म के विभिन्न मत; ईसाई ध्यान; चर्च और प्रेरणा; मृत्यु के बाद जीवन का सवाल और मृत्यु से पहले जीवन पर उसका प्रभाव; ईसाईयत. - इसका "भाग्य" और "पुनर्जन्म" के बारे में अन्य शिक्षाओं से संबंध;... 4. पुराना नियम और अन्य धर्मों के साथ संवाद में योगदान, पुराना नियम , यहूदी धर्म और यीशु; "यीशु और इस्लाम"; पारसी धर्मु, "बौद्धधर्म"; "हिन्दु धर्म"; "टाओत्व, कन्फूसियानिज्म"; "चिनटाओइज्म और प्राकृतिक धर्म; धर्म मानव और ईश्वर के बीच एक "पुनः संबंध" के रूप में।

Jesus and the Islam (english)

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धर्म1) मनुष्य के ईश्वर से ‘‘पुनःसम्बन्ध" के रूप में - ईसा मसीह के पथ पर

1) RELIGION शब्द का मूल लैटिन भाषा का RE-LIGIO शब्द है अर्थात् पुनःएकता - परमात्मा के साथ, जो हमारे भीतर हमारे अन्तर्भाग से आकार प्राप्त करता है। इसी प्रकार का कुछ बड़े पैमानों पर भी घटित होता है, एक पूर्णतः स्वलेख (Hologram) के समान।

मानव जीवन की गहन समस्याओं की पहचान

शरीर को रोगमुक्त करने से परे भी अन्य परिवर्तनों के लिए ईसा मसीह का प्रथम प्रश्न होगा: ‘‘क्या तुम अच्छे होना चाहते हो? (जॉन 5, 6); अथवा यदि तुम परमात्मा के निकट आना चाहते हो, तो क्या तुम उस त्रुटि को जानते हो जिसे तुम्हें अब भी बदलना है? मनुष्य जीवन के सामान्य विषयों के पीछे छिपे महत्वपूर्ण सूत्रों को खोज सकता है जो साधारणतया धर्म से सम्बद्ध नहीं होते। वयस्कता की ओर अग्रसर एक बच्चा नवीन क्षमताओं को प्राप्त करता है ; यद्यपि, कुछ घटनाओं को तीव्रता से अनुभव करने की उसकी मौलिक क्षमताएँ ढक जाती हैं। बाद में मनुष्य इन प्राकृतिक क्षमताओं के नवीकरण का प्रयत्न कर सकता है। इस प्रकरण में मनुष्य से जुड़ी क्षमताएँ बनी रहती हैं, जबकि स्वयं का कठोर बनना ढीला पड़ जाता है अथवा मिट जाता है। मस्तिष्क एवं जीवन में रुकावट, जिसके परिणाम से बौद्धिकता एवं मूल प्रवृत्तिक जीवन में रुकावट आती है - ‘‘हृदय‘‘ के मध्य एक क्षीण सेतु के साथ - पुनः बेहतर रूप से एकीकृत हो जाते हैं। यह दिखाना संभव है, कि यह रुकावट स्वर्ग की कल्पना में ‘‘ज्ञान के वृक्ष का फल खाना" का एक अर्थ है ; और ईसा मसीह की उक्ति ‘‘जब तक तुम बदलते नहीं और बच्चों के समान नहीं बनते, तुम स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे" परिवर्तन और वापसी की संभावनाओं के गहन अध्ययन (ज्ञान) पर आधारित है - मैथ्यू 18, 1-3; मार्क 10, 15; ल्यूक 18, 17। यह न केवल बच्चों के आकुलतारहित आचरणों का मामला है, बल्कि विकास के मौलिक आधारों से सम्बन्धित है, जो कि आद्यप्ररूपीय अभिरचनाएँ हैं - ‘‘मनुष्य के उपयोग के लिए शिक्षण‘‘ का खोया हुआ एक भाग। यह पथ आज की सीमित बौद्धिक संचेतना से बहुत दूर ले जा सकता है।

2) "Archetypal" सी. जी. जुंग और अन्यों के गहरे मनोविज्ञान का एक शब्द है, मानव के अस्तित्व की विभिन्न आकृतियाँ जो विभिन्न रूपों में महसूस की जाती है, जैसे सपनों में।   लेकिन "मूल रूप" में बहुत ही ज्यादा मिश्रित एवं भ्रामक विषयवस्तुएं भी है। "ईश्वर" का चित्रण एक बूढ़े व्यक्ति के रूप में किया गया है और "स्वर्ग" एवं "नरक" एक "सामूहिक अवचेतना" के "ठेठ" संकेत बन जाते हैं। जंग को यह सही-सही पता नहीं था कि आखिर यह है तो है क्या। कम से कम, इस स्तर की चेतना (या बोध) के मूल तत्व की उपस्थिति तो एक हद तक सभी लोगों में प्रतीत होती है – अपनी उन छवियों और अवधारणाओं के साथ जो लोगों के मनो-मस्तिष्क में अंकित कर दिए गए हैं। इस तरह, यह मानव इतिहास के अत्यंत पुरा काल से – उससे भी अधिक प्राचीन समय से जिसे "काल्पनिक चेतना" का नाम दिया जाता है -- एक प्रकार की आदिम स्मृति की तरह उभर कर आती है (...)। इस स्तर की चेतना में ऐसी विषमताएं – कमोबेश "स्पष्ट" विषमताएं -- भी निहित हैं जिनका अनुभव लोगों को अपने जीवन में होता है (...)। अधिक गहनता से देखने पर लगता है कि इस स्तर पर ईश्वर के बारे में जो धारणा व्याप्त है वह एक जटिल अनुकृति जैसी है। (...) परी कथाओं में इस सांकेतिक दुनिया से रचनात्मक तालमेल बिठाने के प्रयास किए गए हैं जो कि बच्चों के लिए वस्तुत: लाभदायक हो सकता है। लेकिन सयाने लोग इन संकेतों के दायरे से आगे जाने के लिए प्रयत्नशील होंगे – उन संकेतों से आगे जो कई मानवीय पहलुओं में रच-बस गए हैं। फिर भी, वास्तविक चुनौती यह है कि ईश्वर के बारे में इन भ्रमित अवधारणाओं में भटके बिना ईश्वर की सीधी तलाश करें तो कैसे करें।

इसका यह अर्थ नहीं है, कि कोई अपने उत्साह से इन सभी का आसानी से प्रबन्ध कर सकता है। ईसा मसीह एक वास्तविक मार्ग प्रस्तुत करते हैं, एवं इसमें कुशलता प्राप्त करने के लिए शक्ति अथवा दया। सत्य की तलाश करने वाले ईसाईयों, रहस्यवादी ईसाईयों और कीमियागर ईसाईयों ने (अधिक) सर्वोत्तमता की अपनी राह ढूँढ ली (उदाहरण के लिए तुलना कीजिए मैथ्यू 5, 48; जॉन 10, 34; ............)। बहुत से अन्य ईसाईयों ने चेतन अथवा अवचेतन रूप से एक समान अनुभव किए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यदि उन्होंने भीतर की ओर तलाशा, अथवा उन्होंने अपना विश्वास सामाजिक जीवन में जताया, - अथवा उन्होंने दोनों को मिला दिया (जोड़ दिया) - जिसे हम ‘‘पूर्ण ईसाई धर्म‘‘ की संज्ञा देते हैं। सहस्रों वर्षों से बहुत सी अन्य संस्कृतियों ने भी अंतः टकराव के हलों को ढूँढा, उदाहरण के लिए ताओवादी कीमियागर, तथा कुछ योग विद्यालय3)।

3) भारतीय शब्द योग, शाब्दिक अर्थ 'बंधन में रखना' का अर्थ मूल और अनंतता से पुनः सम्पर्क चाहना भी है। इसका अर्थ यह नहीं है, कि इस तरह के दूसरे मार्ग उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर होंगे जैसे ईसाई मार्ग।

"देव-पुरूष" ईसा मसीह, "नव-आदम" संकेत है, कि उस समय से जब मनुष्य छिपे हुए मौलिक गुणों को पुनः प्राप्त कर लेंगे ; और कि यही समय है उनके पथभृष्ठ गुणों को सही करने का (बदलने का), जो इस अन्तराल में खतरनाक हो चुके हैं। पृथ्वी के लिए "भाग्यशाली अवसर" के समान, ईसा मसीह ने दोनों का प्रतिनिधित्व किया, जीवन के अर्थ के मौलिक स्रोत से सम्बन्ध - परमात्मा - और अत्यन्त विकसित मानवीय संचेतना। उन्होंने पतनशील शक्तियों को वश में किया। लोगों से भिन्न होने के बावजूद, वे भी मनुष्य थे जिन्होंने यह अभिव्यक्त किया। अतः लोग भी ऐसा कर सकते हैं, विशेषतया यदि वे इसे सचेत होकर करें। परन्तु, उनके लिए जो ऐतिहासिक ईसा मसीह के विषय में नहीं जानते, पुनर्जीवन समेत उनका जीवन (उन लोगों पर) प्रभाव डाल सकता है - इसी प्रकार जैसे वे

पशु जो अपने परस्पर क्षेत्र की शक्तियों से प्रभावित होकर, अपने द्वीप पर शीघ्रता से वह सब कुछ सीखते हैं, जो दूसरे द्वीप पर उनके जैसे दूसरे पशु सीख चुके होते हैं, आर. शेल्डरेक (R. Sheldrake) की खोज।

प्रारम्भ में ईसा मसीह से और ईश्वर से आंतरिक सम्बन्ध बिना गिरिजाघर के सम्भव है; यद्यपि, ईसाई-धर्म का एक उपयुक्त समुदाय सहायक है। विरोधाभासी ईश्वर-मीमांसाएँ, ईसा मसीह का धार्मिक सलाहकार होना अथवा केवल एक समाज सुधारक होना, अब अंतिम उपाय नहीं रह गए ; परन्तु वे किसी को एक संकेत दे सकते हैं, विशेषतया जब कोई किसी से अधिक जानता हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रकोष्ठ के एकान्त में स्वयं को ईसा मसीह के अनुकूल बना सकता है, किन्तु अंत में खुले में (बाज़ार में) भी। इस उद्देश्य के लिए मनुष्य ईसा चरित द्वारा प्रदान किए गए अपने गुणों को याद रख सकता है। जो मनुष्य ईसा मसीह को मृत्यु के पश्चात् पुनर्जीवित के रूप में जानने में रुचि रखता है, वर्तमान समय में क्रियाशील होने के समान ईसा मसीह से सम्बन्ध रख सकता है। (लोगों के मृत्यु के पश्चात् भी उत्तरजीवी होने के कई प्रमाण हैं ; प्रायः ईसा मसीह से भिन्न स्थिति में होने के)। कोई भी ‘‘उनके नाम की‘‘ प्रार्थना करते हुए उनके साथ अपने ज्येष्ठ भ्राता के समान परमात्मा को अनुभव कर सकता है, जो सबको ढक लेता है। ( देखें: जॉन 15, 16; मैथ्यू 6,7 - 15 ;मैथ्यू 18, 19-20)। उदाहरण के लिए:

परमात्मा, मेरा उद्गम, मेरी सहायता (करने वाला) और मेरी आशा !

ईसा मसीह के साथ मिल कर’ आपसे प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु के लिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ;

और आपसे प्रार्थना करता हूँ मुझे वह सब कुछ, जो मुझे आपसे बहुत दूर ले गया है,

क्षमा कर दीजिए**;

इस मौन में कृप्या मुझे आप अपने तेज द्वारा रचनात्मक बनने दें ***;

मुझे अपने पास बुलाएँ

* जो मैरी को सम्मिलित करना चाहते हैं, यह कर सकते हैं। इस प्रकार मनुश्य की नर एवं नारी विशेषताएँ भी प्रभावित होती हैं।

** एक अतिरिक्त प्रथा हो सकती है: प्रथम -नकारात्मक महसूस किए जाने वाले एक संवेग को देखना, अथवा इसके समान कुछ, जैसे वह घटित हो रहा हो (उदाहरण के लिए व्यग्रता, द्वेष एवं क्रोध, उदासीनता तथा परिकल्पना, नितान्त संदेह-अथवा एक समस्या, चाहे वह मस्तिष्क अथवा केवल शब्दों में घटित हुई हो, मैथ्यू 5.22 से तुलना कीजिए।) द्वितीय- उस पर चिंतन करने के बजाए, एक क्षण प्रतीक्षा करना, जो वह है उसके प्रति जागरूक होना। तृतीय - यह समस्या- जो अब महसूस की जा सकती है - परमात्मा को प्रार्थना में प्रस्तुत करना। (इसके आगे, इसी प्रकार यह संभव है, अपना सम्पूर्ण जीवन परमात्मा अथवा ईसा मसीह के हाथों सौंप देना।) चतुर्थ - कुछ राहत महसूस होने तक शान्तिपूर्वक प्रतीक्षा करना।

*** तब पुनः नए कार्यों के लिए अधिक उन्मुक्तता होती है।


इस पथ पर नैतिकता का महत्व

पथ पर एक स्तर है ‘‘परमात्मा से प्रेम’’, जो कि सर्वोपरि है, ‘‘और अपने पड़ोसी को अपने समान प्रेम करो’’ (मैथ्यू 19,19) दूसरे के लिए किये जा सकने वाले काम को ढूंढने के प्रयास का हिस्सा, स्वयं से प्रेम करना भी हो सकता है। प्रेम स्वयं को ईसा मसीह के साथ जोड़ सकता है क्योंकि बुद्धिमता के साथ मिलकर यही उसका वास्तविक स्वभाव है। साथ ही अच्छे कार्यों का मार्ग अपने प्रभावों के साथ ईसाई पथ को स्पष्ट करता है। ईसा मसीह ने पुराने नैतिक मूलों को बनाए रखा; क्योंकि (प्रायः) ‘‘मनुष्य जो बोता है वही काटता है’’ (Gal. 6,7) पर उन्होंने बाह्य नियमों से अधिक एक व्यक्ति के उत्तरदायित्व को महत्व दिया। यहाँ यह अनुभव किया जा सकता है, कि हमारे भीतर कुछ है - उदाहरण के लिए - सचेत महसूस करना - जो की आत्मा के समरूप है, जिसका उदाहरण ईसा मसीह ने अपने जीवन द्वारा दिया है। इस बात को वैयक्तिक रूप से हृदय में या आत्मा में या जीवात्मा में अनुभव किया जा सकता है। ईसा मसीह के परिचित गुणों को अपने भीतर जितनी बार हो सके धारण कर लेना लाभदायक है; अतः प्रभु से एक अधिक सीधा सम्पर्क स्थापित हो सकता है - चाहे इस समय कोई बड़ा परिणाम सामने न आये।

हमारे भीतर इस प्रकार दयालुता से विकसित होने वाली शक्ति, संसार को व्याधिमुक्त करने वाली शक्ति को आकर्षित कर सकती है जो कि पुनः ‘‘बाह्य’’ ईसा मसीह और परमात्मा द्वारा प्राप्त होती है। परन्तु, इस प्रकरण में, स्वयं तथा प्रसंग पर पड़ने वाले प्रभाव गहन हो सकते हैं।

पहले के कुछ ‘‘अप्रकट’’ और ‘‘संतों’’ द्वारा किये गये वे अनुभव, अब साधारण व्यक्ति द्वारा हमारे ‘‘भविष्य सूचक’’ समय में प्रचारित किये जा सकते हैं - इसका महत्व तुरन्त नहीं पहचाना जा सकेगा, और इसलिए इसकी यहां चर्चा होनी चाहिए। संबंधित लोग इस परिवर्तित हो रही शक्ति को स्वीकार कर सकते हैं; अन्यथा यह दुःखद रूप से उन लोगों के व्यवधानों को क्षति पहुंचा सकता है, जिन्होंने इसके अनुरूप पर्याप्त गुणों को धारण नहीं किया है- ताकि इसे किसी ‘‘निर्णय’’ के समान महसूस किया जा सके।

मेरा मार्गदर्शन कीजिए, कि मैं दूसरों को उनके, आप तक पहुँचाने वाले पथ में हानि नहीं पहुँचाऊँगा। **

आप की इच्छानुसार दूसरों की सहायता करने के लिए मेरा मार्गदर्शन कीजिए।

मेरे पथ पर मेरी रक्षा कीजिए। *

अपने स्नेह के साथ चलने में मेरी सहायता कीजिए।

*) यहां दूसरों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।

**) किसी के चरित्र की समस्याओं और सकारात्मक गुणों को उजागर होने पर नोट करना सहायक होता है, और इस तरह अगर कोई सुधार है, तो सचेत हो नियंत्रण करना। इस पर कार्य करने की कुछ सम्भावनाएँ हैं:

1. जीवन की समस्याग्रस्त घटनाओं पर सीधे कार्य करना। सकारात्मक इरादे। यीशु ने भी लोगों को अपनी स्वयं की समस्याओ को पहले देखने के लिए सलाह दी (मैथ्यू 7, 1-5). इस्लाम में भी ये "महान जिहाद" है, यानि "महान धर्मयुद्ध", किसी बाहरी संघर्ष से अधिक महत्वपूर्ण और अधिक कठिन। बहुत से संघर्षो का इस प्रकार एक सकारात्मक समाधान हो सकता है।

2. अपनी गलतियों को सही करना, साथ ही-

3. जहाँ तक हो सके, एक दूसरे को सीधे क्षमा कर देना। या फिर प्रार्थना की जाए और इस प्रकार समस्या को समाधान के लिए ईश्वर को दे दिया जाएः और अपनी आत्मा में क्षमा कर दिया जाए। यीशु भी इस बारे में कहते हैं "अंतिम पैसे तक चुकाना" (ल्यूक 12,59: पर नीचे 5 भी देखें)

4. अगर और कोई सम्भावना न हो, तो दूसरे के लिए अच्छे काम किए जा सकते हैं, जिन्होने ने नुकसान किया है वे नहीं। बहुत से काम ईश्वर के द्वारा क्षमा कर दिए जाते हैं, अगर कोई, उदाहरण के लिए, जनता की भलाई के लिए कोई कार्य करता है। (जो हो चुका उसे साफ करने, और स्वैच्छिक सहायतापूर्ण कार्य करने में जब वह पारस्परिक हो जाता है, के बीच की सीमा काफी धूमिल है, "जो बोता है वही काटता है" उदा. जान 4,37)। यहाँ साफ है, मैथ्यू 7,20-21 के अनुसारः "इस तरह, उनके फलों से आप उन्हे पहचान लोगे। हर कोई जो मुझे "ईश्वर" "ईश्वर" कहता है स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा, पर जो मेरे पिता की इच्छा पूरी करता है, वह स्वर्ग में होगा।"

5. "मेरे नाम पर ईश्वर से प्रार्थना करो", किसी के जीवन में आगे विकास के लिए उसकी क्षमा और दया प्राप्त करो। यह महत्वपूर्ण सहायता है, जो शुद्ध मानव नैतिकता नहीं दे सकती। भाग्य को अब किसी मशीनी चीज की तरह नहीं माना जाता. बल्कि वह र्है ईश्वर के द्वारा निर्देशित, सब कुछ तय हो चुका है, जैसा सर्वोत्तम है किसी के लिए और सब के लिए, जैसा परमात्मा ने देखा है।


इतिहासपूर्व संस्कृतियों में बड़े पैमाने पर समरूप परिवर्धन

बचपन से वयस्कता तक विकास के चर्चित पड़ावों के समान, मानवीय संस्कृतियाँ संचेतना के समरूप चरणों से निकलीं। एक ओर तो वे नयी क्षमताओं में परिणित हुईं (इच्छाशक्ति, संवेदनाएं और पहले से अधिक स्वतंत्र चिन्तन)। दूसरी ओर समस्त ‘‘सर्जन’’ की मौलिक सुपरिचितता का संदिग्ध प्रभावों के साथ ह्रास हुआ। (उदाहरण के लिए जीन गेब्सर (JEAN GEBSER **URSPRUNG   - UND GEGENWART" - जर्मन) की तुलना कीजिएः एक के बाद एक ‘‘पुरातन’’, एक ‘‘जादू’’, एक ‘‘पौराणिक’’ और बौद्धिक संचेतना; उसके आगे एक अधिक एकीकृत सहज बुद्धि का विकास किया जा सकता है। श्रेष्ठ प्राणियों ने अपनी संस्कृतियों के लिए ऐसे उत्पन्न उपायों को सफल बनाने में सहयोग किया। यह सभी बाधाओं के बावजूद हुआ, किन्तु जैसा कि विदित है- पूर्व क्षमताओें को क्षति पहुंचाते हुए। नवीन इतिहास में मानव जाति एवं राष्ट्रों को, इसके आगे के छोटे अथवा बड़े विकासवादी कदमों में पारंगत होने के लिए, यदि वे बने रहना चाहते हैं, चुनौती स्वीकार करनी होगी।

ये संभावनाएँ लगभग 2000 वर्षों से हैं। यह घटनाचक्र बुद्धि जैसी पूर्व विशेषताओं का और ह्रास न करे। यदि पर्याप्त लोग एक अधिक से अधिक पवित्र सहज बुद्धि विकसित करें, और अपने दैविक मूल के साथ अपने संबंधों का नवीकरण करें, मानव जाति ‘‘उपरोक्त’’ की सहायता से भावी महासंकटों के विरूद्ध दौड़ में विजय प्राप्त कर सकती है। संसार में शांति आंदोलन जैसे कार्यकर्ताओं में भी एक संबंध है-शुभेच्छा वाले सभी लोगों की अनिवार्य रूप से ‘‘खेल’’ में अपनी भूमिका होती है। कई लोग - सुस्थापित धार्मिक विद्यालयों में - स्पष्टतः तलाश कर रहे हैं। वे भविष्य में आगे चले जाते हैं और इतिहास से दूर होने में सहायता करते हैं - यद्यपि कुछ ‘‘साधारण गुण’’ हो सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, यदि कोई सोचता है कि उद्देश्य मानवता ‘‘की रक्षा करना’’ अथवा संचेतना में प्रगति करना है। मूल्यों के समकालीन मापक्रम परिवर्तित होने चाहिए, क्योंकि यह स्पष्ट है कि पुरानी ‘‘योजना’’ कहां ले जायेगी। सब कुछ समस्त का भाग है, ओर इसलिए सभी नेक कार्य संसार की सहायता करते हैं।

4) हम निराशावादी विचार भाव से सहमत नहीं हैं, हर्बर्ट ग्रुहल की अन्तिम पुस्तक "HIMMELFAHRT INS NICHTS" (जर्मन अनुवाद ‘‘प्राव-काल्पनिक की ओर आरोहण’’), केवल इसलिए क्योंकि विकास एवं शक्ति के एक भुलाए जा चुके स्रोत को महसूस किया जा सकता है, जो, तथापि केवल एक संयोग हैः परमात्मा।

लोगों को आपके हाथ में जीवन एवं मरण के निर्णयों को देने के लिए प्रेरित करें। *

जो आपके सृजन के कार्य करें, उनकी सहायता करें।

अपने प्रतिश्रुत नवीन काल के पथ पर इस संसार को ले जाएं। **

* यहाँ विस्तृत जानकारी दी जा सकती है अथवा प्रार्थना के उपरांत चिन्तनपूर्वक मनन किया जा सकता है, इस प्रकार: ‘हिंसा में वृद्धि को रोकने के लिये’, ‘हिंसा के एक कारण को समाप्त कर देने की समस्याओं का निवारण करने के लिये’, ‘धर्मों के सज्जनों के बीच एक शान्तिवार्ता आरम्भ करने के लिये’, .......

** ल्यूक 11:2; 21:31. दैविक प्रकाशन 111:16; प्रभु स्वयं को दिए गए प्रेम को पसन्द करते हैं।

अतः लघु मापक्रम एवं दीर्घ मापक्रम पर परमात्मा की ओर एक ‘‘विचार परिर्वतन’’ अपने वश में है

JOHN 16, 12.13: ‘‘मैं अब भी तुम से बहुत कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन तुम अभी सहन नहीं कर सकोगे। 13: जब सत्य का अभिप्राय आएगा, वह सम्पूर्ण सत्य में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा; वह अपने प्रभाव पर नहीं बोलेगा, किन्तु वह जो भी सुनेगा उसे बोलेगा, तथा वह तुम्हारे लिए आने वाले कार्यों की घोषणा करेगा।

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 (english) Informations in websites of others about Christianity in India,
and about its origin, the disciple
Thomas

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अतिरिक्त पृष्ठः

जानकारी: हिन्दुत्व और ईसा मसीह

दूसरे धर्मों के बारे में हमारे अतिरिक्त पृष्ठ बेहतर ज्ञान और अंर्तधार्मिक विचारों के लिए हमारा योगदान है। यहाँ हम हिंदू और ईसाई धर्मों के मध्य समानताओं और असमानताओं पर विचार करेंगे, जो अपने आध्यात्मिक गहराई के प्रति काफी सचेत हैं। हमारा उद्देश्य हिन्दू धर्म की विस्तृत व्याख्या करना नहीं है। पर आवश्यक बिंदुओं पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है।

हिन्दू शिक्षा के मूल में एक शब्द है, विभिन्न स्तरों पर 'अवतार': वे लोग जो धरती पर अपने स्वयं के विकास के लिए नहीं हैं, पर स्वैच्छिक रुप से जो देश या मानवता के भले के लिए, 'ईश्वरीय पूर्णता' के स्तर से नीचे आ गए हैं। हालाँकि इस तरह की अवधारणाओं में इस तरह के बार बार हुए अवतारों के बीच अंतर एक दूसरे में घुलमिल जाता है, जबकि यहूदी और ईसाई धारणाएँ 'इतिहास का ईश्वर', इस सन्दर्भ में विकास और मसीहा की विशेष भूमिका के बीच सम्बंध पर जोर देती हैं (अध्याय "आरम्भ में शब्द था" से उद्धरण)।

तो भी ये भारतीय मानसिकता और शब्दावली के परिप्रेक्ष्य में ईसा मसीह के कार्यों को समझने का एक स्वीकृत तरीका है। इसलिए हिंदू योग गुरु अक्सर ईसा मसीह को एक बड़ी भूमिका में देखते हैं आधुनिक ईसाई धर्मशास्त्रियों के मुकाबले, जो ईसा मसीह को एक साधारण मानव और समाज सुधारक मानते हैं। पर कुछ हिंदू भी हैं जो समझते हैं कि ईसामसीह एक सामान्य शिक्षक थे। ये ध्यान रखना चाहिए कि, ईसाई धर्म की आध्यात्मिक गहनता आंशिक तौर पर खो गई थी, जिसे फिर से समझना चाहिए, ताकि दूसरे धर्मों के साथ एक लाभकारी संवाद सम्भव भी हो सके। (यह वेबसाइट अपने पूरे लेखन पर इस पर विचार करती है) *


योग और ईसाई धर्म

ये कहावत कि 'सम्पूर्ण बनो, क्योंकि तुम्हारे स्वर्गिक पिता सम्पूर्ण हैं' (मैथ्यू 5, 48)

पर विचार करने पर हर धर्म का सबसे दिलचस्प प्रश्न आता है कि, उसके व्यावहारिक मार्ग कहाँ ले जा रहे हैं। हिन्दुत्व के सन्दर्भ में ये मार्ग विविध प्रकार के योग हैं, जो मानव की बाहरी और आंतरिक प्रकृति को नियंत्रित कर, आत्मा को ईश्वरीय पूर्णता की ओर अग्रसर करती है।

इस सन्दर्भ में आध्यात्मिक शिक्षा के यूरोपियन तरीके भी हैं, जिनमें नाड़ी तंत्र या चेतना केंद्र जिन्हे योग में "चक्र" कहा जाता है, शामिल हो सकते हैं। इस प्रवृति को स्वतः, जैसा चर्च ने माना, गैर ईसाई नहीं कहा जा सकता, पर इस तरह के प्रयासों के बारे में मध्ययुग के ईसाई योगी पहले से ही जानते थे (Johann Georg Gichtel), और अब उनका अस्तित्व वाकई अनुभव किया जा सकता है - जैसे कि एक्यूपंक्चर के बिंदु अपने आप ताओवाद के नहीं हो जाते, क्योंकि इन बिंदुओं और रेखाओं को अब विद्युतीय तरीके से नापा जा सकता है व सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है (मुख्य आलेख के "दि होली इगरनेस" से उद्धरण)। जर्मन में एक पुस्तक हैः अल्ब्रेच फ्रेंज "ईसाई योगा", ये मानते हुई कि ईसाईयत और योग सम्बंधित हैं।

हालाँकि, ईसाईयों के लिए ये मुद्रा निर्णायक हैः व्यायाम को स्वयं को ईश्वर के प्रभाव में लाने की तैयारी के रुप में देखा जाता है, या भ्रमवश समझा जाता है कि, ईश्वर की परिपूर्णता को इन तकनीकों से प्रबलित किया जा सकता है( जैसे शरीर व श्वसन के व्यायाम, मंत्रों के उच्चारण = ध्वनि की शक्ति, एकाग्रता, ध्यान, ...) ?।

ईसाईयों के लिए एक और विशिष्टताः उदाहरण के लिए, अगर "यीशु शक्ति" की धारणा योग के संदर्भ में हुई है, तो क्या यीशु की रोगहरण शक्ति को, उनके पूरे मानव समुदाय को प्रभावित करने के एक भाग के रूप में देखा जाना चाहिए, या वह केवल एक पृथक आकाशीय शक्ति के रुप में महसूस की गई? अगर कोई अपने को यीशु के साथ सीधे नहीं जोड़ पाता, तो वह कैसे जान पाएगा, कि उसके अनुभव वाकई यीशु से सम्बंधित हैं? (आंशिक तौर पर हमारे मुख्य आलेख के अध्याय "चमत्कारी कार्यों के प्रश्न" से लिया गया)।

कुछ भी हो दूसरे स्त्रोतों से प्राप्त इन परिस्थितिजन्य तरीकों की जगह कुछ मूल ईसाई मार्ग हैं: पर इनमें से कुछ अभी भी हमारे समय में प्रचलित हैं, उदाहरण के लिए माउंट एथोस ग्रीस के रूढि़वादी साधुओं द्वारा किया जाने वाला अभ्यास ("भगवान दया करो") को अगर भारतीय दृष्टिकोण से परिभाषित करें तो यह एक ईसाई श्वसन और मंत्र विधि होगी (मुख्य आलेख में "रेगिस्तान में शांति" देखें)। ध्यान लगाने का एक विशेष ईसाई तरीका भी है, जो हमारे मुख्य आलेख का आधार है, और एक अतिरिक्त पृष्ठ "...ईसाई ध्यान" में वर्णित किया गया है।

भारतीय शब्द योग - शाब्दिक अर्थ "सलीब उठाओ" - का मतलब है अपनी आत्मा से पुर्नसम्पर्क, जैसे कि लैटिन "re-ligion" (पुर्नसम्बंध), शरीर, मष्तिष्क व आत्मा को जोड़ने के हिंदू तरीके।


रहस्यवाद के ईसाई और हिन्दू तरीके

आज सूली पर चढ़ने को अंदर से महसूस करने पर या कि "मिडनाइट आफ दि सोल", "रहस्यमयी मृत्यु" , "खालीपन" से बदलाव, बिना किसी ऐसी चीज को जिसे मानव पकड़ सक, सभी ज्ञात ईसाई रहस्य (उदाहरण के लिए, मास्टर एकेहार्ट) जो किसी न किसी तरह से महसूस किए गए, का भी योग के चरम अनुभव, निर्विकल्प समाधि या 'निर्वाण' के खालीपन के अनुभव से निश्चित सम्बंध है। हालाँकि, ईसाई रहस्य ने अपने अनुभव दिए कि इस खालीपन में या इसके पीछे "कुछ" है, अवश्य ही ईश्वर या यीशु। अरविंदो ने दिखाया, कि "निर्वाण" के भी आगे जाया जा सकता है. जो उसके पीछे है - भारतीय तरीके से। ईसाई तरीके से हालाँकि सभी चीजों के पीछे कोई चीज धार्मिक रास्ते के आरम्भ से ही बहुतायत में हो सकती है, क्योंकि यीशु के होने से, पृथ्वी से होकर जाना एक सेतु का प्रतिनिधित्व करता है।

जब अरबिंदो जैसे किसी का उन शक्तियों से सामना होता है, जिनका सम्बंध यीशु से महसूस होता है, पर पृष्ठभूमि नहीं है, तो यह एक कठिन पर्वतमालाओं की सैर लगती है। यह किसी भी तरह असम्भव नहीं है, हालाँकि हिंदू लड़के साधु सुंदर सिंह का मामला याद किया जा सकता है, जिसे ईसाईयत के बारे में कुछ नहीं पता था, पर जिसने, ईश्वर के लिए काफी अंदरुनी खोज के बाद, अचानक साक्षात यीशु का अनुभव किया, जिसे बाद में पुस्तकों में लिखा गया। और हिन्दूओं के तांत्रिक अनुष्ठानों में जहाँ लोग, जो भारतीय भगवानों के दर्शन की आशा कर रहे थे, को अचानक यीशु के दर्शन हुए। "आत्मा वहाँ जाती है, जहाँ वो जाना चाहती है।"

एक ईसाईयत से सम्बंधित धार्मिक समाज के लिए कोई विशेष प्रासंगिक नहीं, पर दूसरे सांस्कृतिक क्षेत्रों के लिए आर. स्टैनर के संकेत दिलचस्प हो सकते हैं, कि यीशु को पृथ्वी पर आने से पहले एक सूर्य के समान महान संत के रूप में देखा जा सकता है (मुख्य आलेख के "सलीब पर चढ़ाना..." से उद्धरित)। *

हिंदुओं के विभिन्न प्रकार के भगवानों के बारे में, कुछ नए अनुसंधान हुए हैं, जिनके अनुसार कुछ पुरानी संस्कृतियों के "भगवान" , जब तक वे किसी "कबीले के विशेष भगवान" या मानव नायक न हों, एक ही ईश्वर के रूप थे, जिनकी बाद में स्वतंत्र मूर्तियों के रूप में पूजा की जाने लगी। इसलिए, पुराने सैद्धांतिक विवरण जैसे बहुईश्वरवाद (बहुत से ईश्वरों वाले धर्म) बहुत मायने नहीं रखते। यहूदियों के, मूल हिब्रू लेखनों में भी ईश्वरों के बहुत से नाम थे और उनके गुण भी। पर वे उन्हे विभिन्न भगवान मानकर उनकी पूजा करने तक आगे नहीं गए। उदाहरण के लिए, पारसियों ने भी एक ईश्वर की धारणा को ही मान्यता दी।

इस सन्दर्भ में दिलचस्प बात है कि नई कोशिशें हो रही हैं जो शरीर के प्राकृतिक और अनिवार्य नश्वरता की सामान्य अवधारणा को नहीं मानती, जैसे यीशुः उदाहरण के लिए, भारतीय दार्शनिक और योगी अरबिंदो और उनकी आध्यात्मिक साथी, मार मीरा अलफसा ने एक ऐसी ही दिशा पर खोज की। (मुख्य आलेख के "दि रिसरेक्शन" से उद्धरण)


"कर्म" और ईश्वर के बारे में शिक्षा

हिंदू ईसाईयों के सामाजिक कार्यों और दया को "कर्म योग" (भाग्य और दुर्भाग्य की सफाई का योग) या "भक्ति योग" (प्रेम का योग) नाम देंगे। अभिज्ञान के रास्तों (ध्यान सम्बंधी कार्यों को सम्मिलित कर) की "इनान योग" से तुलना की जा सकती है।

कोई वाकई अनुभव कर सकता है कि, जीवन ज्यादा सुव्यवस्थित चल सकता है, अगर यीशु के द्वारा बताए गए भगवान के जीवन के बारे में पथप्रर्दशन को कोई मान्यता देता हो। अगर किसी का इसकी जगह भाग्य के नियमों पर विश्वास है – हिंदू धारणा से, "कर्म" का संतुलन – तो जीवन इन आदर्शों पर ज्यादा चल सकता है। यीशु भी "अंतिम पैसे तक" पुर्नप्रक्रिया की बात करते हैं, पर वे नहीं कहते, कि वह फिर भी होना चाहिए "आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत" (जैसा कि बाइबिल के पुराने नियमों में कहा गया है)। मनुष्य के नए कार्य सामने हैं – जो उसके लिए और उसके वातावरण के लिए लाभप्रद है, उसे यथा सम्भव लिया जाता है, और किया जाता है। बीते हुए को सम्भालना अपने आप में अंत नहीं है, और यह अब विकास के लिए कोई प्रेरणा नहीं है। आज विभिन्न सम्भावनाओं के समय लोगों की मदद देखी जा सकती है। (मुख्य आलेख के अध्याय "दि क्रूसिफिकेशन" से उद्धरित, एक अतिरिक्त पृष्ठ "कर्म और पुर्नजन्म के बारे में शिक्षा" भी उपलब्ध है)।


नीतिगत मूल्य

विश्व के धर्मों की नीतिगत सिद्धांतों में सबसे ज्यादा समानता है, इसलिए इस क्षेत्र में संवाद सबसे अधिक है, उदाहरण के लिए, पतंजलि के प्राचीन योग के सफल होने के लिए पहली आवश्यकता है "यम", किसी भी प्राणी को विचारों, शब्दों या कार्यों से हानि न पहुँचाना, लालची न होना, सच्चाई, यौन पवित्रता, दान स्वीकार न करना (अपने जीविकोपार्जन के लिए)। दूसरा चरण है "नियम" : आंतरिक और बाहरी शुद्धि, विनम्रता, दिखावा न करना, त्याग, उदारता, बलिदान के लिए तत्परता, देवताओं की आराधना, उत्साह और श्रद्धा। योगी बताते हैं कि, भागवतगीता का युद्ध का मैदान भी अपनी आत्मा की शुद्धि की लड़ाई है। स्पष्ट रूप से यीशु की शिक्षाओं और 10 कमांडमेंटस के समानान्तर उद्धरण हैं। हिंदू, ईसाई और अन्य कई धर्मों ने "वैश्विक नैतिकता"।

 * english: www.ways-of-christ.net

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सूचनाएँ, ईसामसीह एवं बौद्धत्व

अन्य धर्मों से सम्बन्धित हमारे अगले पृष्ठ बेहतर समझ और अंतःधर्म संवाद के प्रति एक योगदान हैं। यहाँ हम बौद्ध और ईसाई मतों, जो कि अपनी आध्यात्मिक गहराईयों के प्रति जागरूक हैं, की समानताओं और असमानताओं की चर्चा करेंगे। इस विषय में बुद्ध (500 वर्ष ईसापूर्व) के जीवन एवं शिक्षाओं का विस्तृत रूप से वर्णन नहीं किया जाएगा। आवश्यक बिन्दुओं की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की जा रही है।

बुद्ध की मूल शिक्षाओं का सार-जिस पर कि ‘‘हिनाजन’’ बौद्धत्व अभी भी आधारित है, स्वयं को अधिक से अधिक सबसे पृथक करना है, जो कि किसी के भी स्वत्व से संबन्धित नहीं है। चेतना एवं ध्येय की इच्छा, जो कि कष्ट सहने के लिए प्रेरित करती है, को ‘‘स्वयं से संबन्धित न होना’’ (अनाता) की तरह पहचाना जाएगा और जो अंत में समाप्त हो जाएगी और ‘निर्वाण’ की स्थिति को प्राप्त करेगी। यह सब एक व्यावहारिक एवं अनुशासित, साधना से परिपूर्ण, जीवन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। विशेषतः बाद के ‘‘महाजन’’ बौद्धत्व मत - जिन्होंने इसके अलावा दूसरी चीजों को भी बढ़ावा दिया, जैसे कि संसार से विमुख होने के बजाए सबके साथ मानसिक समझ एवं सौहार्द रखना - कई बार इस ‘‘स्वत्व नहीं’’ के विचार की धारणा को मिथ्या समझते रहे। उन्होंने इसकी व्याख्या इस प्रकार की कि जब कोई निम्न एवं अंहकारी स्वभाव को पीछे छोड़ देता है तो कोई ‘‘मैं’’ नहीं रहता। अतः उन्होने निर्वाण की व्याख्या भी ‘‘कुछ नहीं’’ के रूप में की। जबकि बुद्ध ने स्वयं अपने उच्चतम अनुभवों (नवम चरण) के विषय में कहाः ‘‘और मैंने भी..... समय के साथ ‘न बोध न अबोध’ के क्षेत्रों के कष्टों को देखा, यह मुझे पूर्णतः स्पष्ट हो गया, और (‘मैं’’) ‘बोध और भावनाओं के समापन’ के आनंद में लीन हो गया, और मुझे मेरा भाग मिल गया। और इसलिए उस समय से मुझे मिला - ‘न बोध न अबोध’ के पूर्ण समापन के पश्चात् ‘बोध और भावनाओं का समापन’और उसमें लीन होना, और, जब मैंने यह सब बुद्धिमत्ता से पहचाना, समस्त प्रभाव समाप्त हो गए।’’ (अंगोत्तर निकज का सुत 9, क्रम 41...)

अभी तक ये समझा जा सकता है कि, ईसा मसीह भी लोगों को उनके गुणों की शुद्धि करने को प्रेरित करते हैं, और दूसरों की तुरंत आलोचना करने के स्थान पर स्वयं से आरम्भ करने का कहते हैं। (कृप्या Ways-of-christ.com  का मुख्य आलेख देखें ) । और वे स्वयं को और अपने अनुयायियों को संसार से या सांसारिक कृत्यों से सम्बंघित नहीं करते, पर मूल बुद्ध मत के मुकाबले ज्यादा साफतौर पर, उनके अनुसार वे इस संसार से नहीं हैं बल्कि इस संसार में रहते हुए और कार्य करते हुए (जारन 17), संसार को स्वर्ग में परिवर्तित करने की ओर अग्रसर हैं।

जो भी हो, जीवन के प्रश्नों पर बुद्ध और यीशु के कथनों में इतनी सारी समानताएँ हैं, कि कुछ दशकों से कुछ लोग मानते हैं कि, यीशु ने बौद्ध धर्म की शिक्षा दी होगी। पर ये सही नहीं है। इसी तरह कोई कह सकता है कि उन्होंने कोई और प्राचीन घर्म की शिक्षा दी होगी। हमारे मुख्य आलेख में यह समझाया गया है, उदाहरण के लिए, ये आंशिक समानताएँ आध्यात्मिक वास्तविकताओं के कारण हैं, जिसे हर कोई, जिसकी पहुँच है, बिना किसी की नकल किए, समान रूप से प्राप्त करेगा। ये धर्मों का शक्तिशाली बिंदु है- भौतिक और अहंकारी समाज की तुलना में- जिसका वे पर्याप्त उपयोग नहीं करते। पर धर्मो के बीच समानताएँ और सम्पर्क इस तथ्य को नहीं बदल देते कि उन सबके अपने और आंशिक तौर पर अलग अलग मार्ग हैं।

यद्यपि, जूडवादी, ईसाई-धर्म तथा इस्लाम में वे विशेषताएँ जो मनुष्य द्वारा शुद्ध की जानी चाहिए अतिरिक्त रुप से संबन्धित पापकर्मों के साथ सम्बद्ध हैं। एक ओर यह धार्मिक नैतिकता के नियमों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है; वास्तव में यह, हमें ईश्वर से पृथक करने वाले सभी अवगुणों - को अभिभूत करने से सम्बंधित है। प्रायः यह दृढ़ विश्वास है - सम्भवतः स्वयं कई बौद्धधमिर्यों में भी कि - बौद्ध धर्म में कोई ईश्वर नहीं है। अतः धर्मों की परस्पर नैतिक घोषणाएँ भौतिक जीवन से परे केवल एक "अंतिम वास्तविकता" से सम्बन्ध रखती हैं, सभी धर्मों द्वारा स्वीकृत, एकल धर्मों में उसका जो भी अर्थ हो। कम से कम यह पूर्णतः सही नहीं है । बुद्ध ने कभी नहीं कहा, कि कोई ईश्वर नहीं होगा ; किन्तु उनके समय में उन्होंने स्वयं को केवल मानवीय तरीकों की मान्यताओं के विषय में बोलने तक ही परिसीमित रखा। बुद्ध ने ब्रह्मा, हिन्दुओं के रचयिता देव, से सम्बन्धित हिन्दू पुरोहितों के प्रश्नों के उत्तर दिए: "मैं ब्रह्मा को भली-भाँति जानता हूँ, और ब्राह्मी संसार को, और ब्राह्मी संसार तक ले जाने वाले पथ को, और ब्रह्मा कैसे ब्राह्मी संसार तक पहुँचे, मैं यह भी जानता हूँ" - (दीघ निकाय, 13वीं उक्ति - धार्मिक अनुभवों से सम्बन्धित, न कि साधारणतः हिन्दुओं की पुस्तकों का ज्ञान)। हिन्दुओं के ब्रह्मा की सरलता से ईसा मसीह द्वारा अध्यापित ईश्वर से तुलना नहीं की जा सकती। बल्कि ब्रह्मा ईश्वर की आंशिक क्षमताओं के आदर्शों में से एक हैं, जो समय के साथ विभिन्न संस्कृतियों में उन्नत हुए । फिर भी, ब्रह्मा नकारात्मक शक्तियों का नाम नहीं हैं।

ईसा चरित एवं दैवीज्ञान (THE GOSPELS AND THE REVELATION) "ईश्वर" का वर्णन रचना के आरम्भकर्ता, एवं उसकी अन्तिम आपूर्ति करने वाले के रुप में करते हैं (प्रारम्भ व अंत); और अतः (वह) जो रचना से श्रेष्ठ हैं, और अंत में ईसा मसीह से पहले जिन तक नहीं पहुँचा जा सकता । जेकब बिहमे (JAKOB BOEHME) जैसे ईसाई रहस्यवादियों ने, अपने प्रमाणित करने वाले अनुभवों के अनुसार कहा, कि यह ईश्वर न केवल भौतिक संरचना की रचना से ऊपर है, बल्कि परलोक से ऊपर तथा "प्रथम दिव्य रचना" से भी ऊपर हैं। **) धर्मों की तुलना करने के लिए, अधिकांश विज्ञान-सम्बन्धी पुस्तकों का विचारण, उन्हें सम्मिलित किए बिना, जिन्हें गहन धार्मिक अनुभव हैं, अधिक सहायता नहीं करेगा।***½ इसके बिना दोनों ओर समझी जाने वाली एक भाषा को ढूँढ पाना भी संभव नहीं है ।

बौद्ध (धर्म का) पथ "निर्वाण", परे से भी परे, में प्रवेश की ओर ले जाता है, कुछ जो अधिकांश बौद्धधर्मियों के लिए ‘दूर’ की तरह है। ’’’) जैसे कि ईश्वर के साथ रहस्यमय एकीकरण ईसाईयों के लिए ‘दूर’ है। ***) तथापि, बौद्ध धर्म इस संभावना की भी शिक्षा देता है, कि एक "बौद्धिसत्व", एक "पुनर्जन्मों से मुक्त एक", स्वेच्छा से धरती पर आ सकता है, शेष मानव जाति की सहायता करने के लिए । ईसा मसीह ईश्वर की ओर अग्रसर हो गए ("और कब्र खाली थी..."; तथा पुनर्जीवन एवं आरोहण (RESURRECTION & ASCENSION), पुनः आगमन के वचन के साथ। ईसा मसीह एवं उनके तरीकों के साथ आज सबसे परे उच्चतम दैविक क्षेत्र से भौतिक स्तर तक एक व्याप्ति संभव हो पाई है।

यहाँ भी रुडोल्फ स्टीनर (RUDOLF STEINER) संभवतः उल्लेख करने योग्य हैं: उन्होंने कहा, (कि) बुद्ध प्रेम की प्रज्ञा के विषय में शिक्षा ले कर आए, एवं इसके पश्चात् ईसा मसीह प्रेम का प्रभाव लेकर आए । यहाँ बुद्ध को किसी पुरोगामी के रुप में देखा जा रहा है। जो जानना चाहता है, (कि) वास्तविकता क्या है, अपने पथ पर स्वयं ईसा मसीह एवं/अथवा बुद्ध से पूछ सकता है!

*) स्वयं बुद्ध द्वारा दी गई शिक्षाएँ के. . न्यूमैन (K.E. NEUMANN) के विस्तृत अनुवादों में पाई जा सकती हैं, "बुद्ध के प्रवचन: मध्यम संग्रह" ((Die Reden des Buddha: mittlere Sammlung) (जर्मन, संभवतः अंग्रेज़ी में भी अनुवादित) ; "दीर्घ संग्रह" (LONG COLLECTION) में भी।

**) ब्रह्म विद्या के प्रयोग वाले लोगों के लिए यह उल्लेख किया गया है, कि ब्रह्म विद्या की पारिभाषिक शब्दावली में, यथातथ्य लिया गया, निर्वाण अथवा आत्मन "परनिर्वाणिक" अथवा "महापरनिर्वाणिक लोगायोई" दैविक स्तरों के नीचे हैं।

***) मुख्यतः ईसाई रहस्यवादी मास्टर एकेहार्ट (MASTER EKKEHART) ने अपने अनुभवों को निर्वाण-अनुभव - इस शब्द के बिना - के समान वर्णित किया गया है, किन्तु एक असमानता के साथ, कि उनके लिए यह ईश्वर से मिलने से संबन्धित है।

****) संसार के रास्ते सत्व के साथ ईश्वर की ओर वापसी एक तरफ किसी वस्तु की ओर वापसी है, जो पहले ही वहाँ हर समय थी। दूसरी ओर यह कुछ अतिरिक्त है, जो पहले वहाँ नहीं थी, दो सर्वसम त्रिकोणों के समान। यह विरोधाभास केवल एक गहन रहस्मय अनुभव के साथ ही बोधगम्य है।

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अतिरिक्त पृष्ठः

जानकारी: ज़ोरोस्टीज़्म (पारसी -धर्म)

अन्य धर्मों से सम्बन्धित हमारे अगले पृष्ठ बेहतर समझ और अंतःधर्म संवाद के प्रति एक योगदान हैं। ईसाइयत के भाग के लिए आधार है स्वतंत्र अनुसंधान, जिसमें प्राचीन आध्यात्मिक गहराई शामिल है। ज़राथुस्त्रा का प्राचीन पारसी धर्म का ज्यादा वर्णन नहीं है, पर कुछ दृष्टिकोण दिए गए हैं, जो इस उद्देश्य के लिए महत्वपूर्ण हैं।

ज़राथुस्त्रा.

आज पारसी अपने पवित्र धर्मग्रन्थ, ज़ेंड अवेस्ता, के साथ ज़ोरोस्टीयन शिक्षा को बनाए हुए हैं। भारत में इस धर्म के अन्वेषकों ने पाया है कि (पहले) ज़राथुस्त्रा ईसा से हजारों साल पहले रहते थे - तो इस प्रकार प्राचीन यूनानी इतिहासकार हेरोदोत सही था। (...)

ज़राथुस्त्रा ने आध्यात्मिक शुद्धता और भौतिक जीवन के सकारात्मक व्यवहार दोनों को जोड़ा (...)। यह भी पाया गया कि उनके धर्म ने न केवल प्रकाश और अँधकार के विरोध को सम्भाला (...). वरन एक निजी ईश्वर, यहाँ जिसका नाम अहुरा माज़दा था, को उन आकाशीय शक्तियों से ऊपर दिखाया। अहुरा माज़दा से विभिन्न देवदूतों के जरिए सहायता माँगी गई - पर इन देवदूतों के अस्तित्व का अर्थ यह नहीं है कि यह एक बहुईश्वरीय मत है। (...)

उस धर्म के बारे में सबसे आध्यात्मिक अन्वेषण का पताः Mazdayasnie Monasterie, http://www.indiayellowpages.com/zoroastrian ; mazocol@hotmail.com . (...)अवश्य ही, इस धर्म का अधिकांशतः अपनी आध्यात्मिक 'गहराई' खो चुका है, जिसे आज फिर से खोजने की आवश्यकता है- दूसरे धर्मों की ही तरह। (...)

ईरान में भी कुछ मुस्लिम धर्मविज्ञानी यहूदी और ईसाईयों की तरह पारसियों को भी 'धर्मग्रन्थों के लोग' के रूप में स्वीकार करते हैं; जिसका अर्थ 'अविश्वास करने वाले' नहीं, बल्कि वे लोग हैं जो उसी ईश्वर पर विश्वास करने वाले हैं, जिनको बहुधा उनके पैगम्बरों द्वारा इस ईश्वर की याद दिलाई जाती थी। (...)

हमारा विचार है कि ज़राथुस्त्रा के इस प्राचीन धर्म में कम से कम कुछ समान है उन एक ईश्वर में विश्वास करने वाले प्रारम्भिक विश्वासों से, जो नोह/नुआख - जो बाढ़ में बच गए थे - ने उस समय की नष्ट होती संस्कृति में बनाए रखा। (...)

और, कुछ और भी दृष्टिकोण हैं, जो बताते हैं कि 'पूर्व के 3 ज्ञानी पुरूष' या '3 मागी', जिन्होने यीशु को बच्चे के रूप में पाया और पूजा, ज़ोरास्टीयन ही थे। (...)ज़राथुस्त्रा के मूल लेखन, जेंड अवेस्ता, का ज्यादातर भाग माना जाता है कि खो गया है। ईसा के बाद तीसरी और चौथी शताब्दी में कुछ ज्ञात भागों को 21 पुस्तकों में फिर से समन्वित किया गया। कुछ भाग फिर से खो गए हैं। पारसियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण भाग है, उदाहरण के लिए, '5 गाथा' की पुरानी प्रार्थनाएँ (टी. आर. सेठना, भारत, 'खोरदे अवेस्ता' अंग्रेजी अनुवाद के साथ), जो पुरानी ईरानी भाषा में गाई जाती हैं। (...)

आध्यात्मिक पथ पर नैतिकता।

नैतिक मूल्य दूसरे विश्व धर्मों के समान ही हैं: अच्छे विचार, अच्छा कहना और अच्छा करना। (...).

ईसाईयों के दृष्टिकोण से, यीशु लोगों को ईश्वर से जोड़ने में विश्वास करने और प्रार्थना करने के लिए सहायता करता है।


* मुस्लिम भी एक ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।
* ज़ोरास्टीयन सामान्यतया दूसरे धर्मावलम्बियों को अपने धर्म से विमुख करने के लिए प्रयास नहीं करते।

 *) english: www.ways-of-christ.net

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कापीराइट : सूचना

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निर्मित 1991-2014; इंटरनेट पर पहली बार 2001-01-31 को प्रकाशित किया गया; यह ... का हिंदी में विशेष संक्षिप्त संस्करण है  (2002-11-04/ 2002-11-26)... (बाद के संशोधनों के साथ).

लेखक: प्रोजेक्ट वेज ऑफ क्राइस्ट। (Ways of Christ™).

इस इंटरनेट संस्करण के प्रकाशक हेलमट जिगलर हैं।

यह साइट "Ways of Christ" एक अनुसंधान और सूचना प्रोजेक्ट है। इसकी दिशा स्थिति विश्वव्यापी है। वेबसाइट "Ways of Christ" शांतिपूर्ण सम्बन्ध और धर्मों के बीच गहरी समझ का समर्थन करती है। "Ways of Christ" किसी भी चर्च या दूसरी संस्थाओं से अलग व स्वतंत्र है (पर इनमें से किसी के विरुद्ध नहीं है)। "Ways of Christ" कोई मिशनरी कार्य या सदस्यों के लिए प्रचार नहीं करता है। "Ways of Christ" किसी राजनीतिक प्रभाव या लाभ के लिए प्रयासरत नहीं है।

इसका कार्यंक्षेत्र ईसाईयत के सभी प्रकार के विषय, और दूसरे धर्मों के मध्य धार्मिक संवाद है। मुख्य विषय ईसाईयत के बहुधा अनदेखा कर दिए जाने वाले आध्यात्मिक पहलू का गहन अध्ययन है। हालाँकि, ईसाईयत के दूसरे पहलुओं -सामाजिक प्रश्नों से सम्बंधित - को भी इस अलग तरह के दृष्टिकोण से, उतने ही महत्व के साथ देखा गया है।

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